December 6, 2025

सबका सबके बिना काम चल जाता है: आप भ्रम में है कि मैं खास हूं….. तरुण खटकर।

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हमारा मन एक अद्भुत शिल्पी है, जो अक्सर कल्पनाओं की एक दुनिया गढ़ता है। इस दुनिया में हम स्वयं को नायक मानते हैं,ऐसा नायक जिसको लगता है कि उसकी अनुपस्थिति से कहानी अधूरी रह जाएगी। यह केवल भ्रम, है जिसे हम “ख़ास होने का एहसास” कहते हैं, हमें एक काल्पनिक सुरक्षा और महत्व की भावना देता है। हम सोचते हैं, “अगर मैं यह काम नहीं करूँगा तो कौन करेगा?”, “मेरे बिना कैसे चलेगा?”, या “मेरे जाने के बाद इस जगह का क्या होगा?”लेकिन, जीवन का यथार्थ अलग है। यह बार-बार हमें बताता है कि दुनिया हमारे बिना भी उतनी ही सुचारू रूप से चलती है, जितनी हमारे साथ।

आइए इस भ्रम की दीवार को तोड़ दे

यह सोचना कि मैं खास हूं, एक बड़ी भूल है। हर संगठन, हर संस्था, और हर सामाजिक संरचना को इस तरह से बनाया गया है कि वह किसी एक व्यक्ति पर निर्भर न रहे। जब कोई कर्मचारी, चाहे वह कितना भी कुशल क्यों न हो, नौकरी छोड़ता है, तो कुछ समय की उथल-पुथल के बाद उसकी जगह कोई और लेता है। नई ऊर्जा, नए विचार और नई कार्यप्रणाली आती है, और काम पहले से भी बेहतर ढंग से चलने लगता है। व्यवस्था व्यक्ति से बड़ी होती है।व्यक्तिगत संबंधों में भी यह भ्रम बहुत गहरा होता है। हमें लगता है कि हम किसी के जीवन का केंद्र हैं, और हमारे बिना उनका अस्तित्व अधूरा है। लेकिन, रिश्ते आवश्यकता पर नहीं, बल्कि प्रेम, सम्मान और सामंजस्य पर टिके होते हैं। जब कोई रिश्ता टूटता है, तो शुरुआत में गहरा दर्द होता है, लेकिन समय के साथ लोग इस खालीपन को भर लेते हैं। जीवन ठहरता नहीं, वह आगे बढ़ता है।जब हम यह मान लेते हैं कि हम खास हैं, तो हमारा अहंकार बढ़ता है। यह अहंकार हमें दूसरों के विचारों और योगदान को महत्व देने से रोकता है। हम आलोचना को स्वीकार नहीं कर पाते और अपने दृष्टिकोण को ही एकमात्र सत्य मानते हैं।

इसके विपरीत, जब हम यह स्वीकार करते हैं कि हम दुनिया का एक छोटा सा हिस्सा हैं, तो एक नई तरह की विनम्रता जन्म लेती है। यह विनम्रता हमें सीखने, सुनने और दूसरों के साथ मिलकर काम करने के लिए प्रेरित करती है। यह हमें यह सिखाती है कि हमारा महत्व हमारी “खासियत” में नहीं, बल्कि हमारे कर्मों और दूसरों के प्रति हमारी प्रेम में हैइसलिए, इस भ्रम से बाहर निकले

यह हमें सिखाता है कि हमें अपना सर्वश्रेष्ठ देना चाहिए, लेकिन यह भी समझना चाहिए कि यह दुनिया बहुत बड़ी है, और हम इसके एक छोटे से हिस्से भर हैं।

हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि यह नहीं है कि हम “ख़ास” बन जाएँ, बल्कि यह है कि हम एक ऐसे इंसान बनें, जिसकी उपस्थिति और अनुपस्थिति दोनों से ही दुनिया को फ़र्क पड़े,

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