December 4, 2025

वक़्त बदला, नीच सोच नहीं: सोशल एक्टिविस्ट तरुण खटकर की कलम से

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दिनांक 28 दिसंबर 2025…..

“जुता फैंकने वाले वही लोग हैं जिन्होंने सावित्रीबाई फुले पर गोबर और कीचड़ फैंका था।

वक़्त बदला है, नीच सोच आज भी नहीं बदली।”

ये पंक्तियाँ केवल शब्द नहीं हैं, बल्कि हमारे समाज के माथे पर लगा एक ऐसा अमिट कलंक हैं जो हमें बार-बार यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या वास्तव में हमने सभ्यता और मानवता की दिशा में कोई प्रगति की है?

आज से डेढ़ सदी पहले, जब राष्ट्रनायिका सावित्रीबाई फुले ने ज्ञान का दीपक जलाया, तो उनके रास्ते में गोबर और कीचड़ फेंका गया था। वह उन रूढ़िवादी, जातिवादी शक्तियों का विरोध था जो यह बर्दाश्त नहीं कर पा रही थीं कि समाज की आधी आबादी, विशेषकर वंचित वर्ग, शिक्षा के उजाले से अपनी किस्मत बदल दे।

सावित्रीबाई का संघर्ष केवल एक स्कूल खोलने का नहीं था, बल्कि उस गंदी मानसिकता को चुनौती देने का था जो मनुष्यों को जन्म के आधार पर ऊंच-नीच में बांटती थी। वह हर रोज़ दो साड़ियाँ लेकर जाती थीं – एक कीचड़ और गोबर से गंदी होने के लिए, और दूसरी, स्कूल पहुँचकर, सम्मान से लड़कियों को पढ़ाने के लिए। उनका यह त्याग भारतीय इतिहास का सबसे गौरवशाली और पीड़ादायक अध्याय है।

वक़्त का पहिया घूम चुका है। अब हाथ में किताबों की जगह लैपटॉप हैं, बैलगाड़ी की जगह हवाई जहाज हैं, और गोबर की जगह शायद इंटरनेट पर गालियों की बौछार है। लेकिन, जब हम वर्तमान में सार्वजनिक जीवन में संघर्षरत किसी व्यक्ति पर फेंके गए जूते, पत्थर, या सोशल मीडिया पर विषैली भाषा के हमले देखते हैं, तो मन विचलित हो उठता है। यह हमला व्यक्ति पर नहीं होता, यह हमला उस विचार पर होता है, उस समानता पर होता है, उस प्रगति पर होता है, जिसके लिए सावित्रीबाई फुले ने अपना जीवन समर्पित कर दिया था।

ये ‘जुता फैंकने वाले’ कौन हैं? ये कोई नए लोग नहीं हैं। ये उसी “नीच सोच” के आधुनिक अवतार हैं। वह सोच, जो किसी महिला को, किसी दलित को, किसी वंचित को, या किसी भी उस व्यक्ति को जो उनकी स्थापित सत्ता या सोच को चुनौती देता है, आगे बढ़ते हुए नहीं देख सकती।

तब डर शिक्षा का था, आज डर आवाज़ का है।

विडंबना यह है कि हम आज सावित्रीबाई फुले को श्रद्धांजलि देते हैं, उनके त्याग का गुणगान करते हैं, लेकिन उनकी विरासत को बचाने में नाकाम रहते हैं।

जब हम वर्तमान में उन लोगों के साथ खड़े होते हैं जो असहमति या चुनौती देने वाले पर हिंसा, अपमान, या घृणा बरसाते हैं, तो हम अनजाने में ही सही, उन गोबर और कीचड़ फेंकने वालों के वंशज बन जाते हैं।

वक़्त बदल गया, तकनीक बदल गई, सत्ता के समीकरण बदल गए, पर दुखद रूप से, नीच सोच आज भी नहीं बदली। यह वह सोच है जो मानवता, समानता और न्याय के हर कदम पर अपनी गंदी छाप छोड़ने को तत्पर रहती है। जब तक हम इस सोच को जड़ से नहीं उखाड़ फेंकेंगे, तब तक सावित्रीबाई का संघर्ष और उनका बलिदान अधूरा रहेगा, और हम खुद को सभ्य समाज कहने का अधिकार खो देंगे।

यह लेख केवल निंदा नहीं, बल्कि आत्मचिंतन का आह्वान है। हमें तय करना होगा कि हम इतिहास के गौरवशाली पन्ने का हिस्सा बनेंगे या गोबर फेंकने वाली भीड़ का।

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