गांव की जरूरतो को पूरा कर दो सरकार शहरों का श्रृंगार बाद में होता रहेगा …….तरुण खटकर।
सोशल एक्टिविस्ट तरुण खटकर की कलम से……

भारत जिसकी पहचान सदियों से उसके गांवों से रही है आज विकास के दौड़ में एक अजीब विरोधाभास का सामना कर रहा है। एक तरफ … जहां शहरों की जगमग करती रोशनियां चमचमाती सड़कें,गगन चुंबी इमारतें फ्लाईओवर, मैट्रो, रंग बिरंगे साज सज्जा है तो दूसरी तरफ.. बुनियादी सुविधाएं के अभाव में गाँव की आत्मा सीसक रही हैं। आजादी के सात दशकों बाद आज भी जहां स्कूल,अस्पताल,सड़कें बिजली, स्वच्छ जल जैसे बुनियादी जरूरतें भी पूरी तरह नही पहुंच सकी है वहां की दबी हुई आहें आज भी अनसुनी है। वहां विकास तभी संभव है जब सरकार की प्राथमिकता में गांव की बुनियादी जरूरतें सबसे उपर हो।

ज़रा सोचिए, उन बच्चों के बारे में जो पानी टपकती स्कूल की छतों के नीचे बैठकर भविष्य के सपने संजोते हैं। हर बारिश उनके बस्तों को भिगो जाती है, उनकी किताबों पर दाग छोड़ जाती है और सबसे बढ़कर, उनके मासूम मन में एक टीस भर जाती है क्या उनका पढ़ना इतना भी ज़रूरी नहीं कि उन्हें एक सही छत मिल सके? यहा सिर्फ छतें नहीं टपक रहीं, बच्चों के सुनहरे भविष्य की उम्मीदें भी टपक रही हैं। यहां गाँव में स्थित जर्जर अस्पताल की तरफ देखिए। जहाँ जीवन बचाने की उम्मीद लेकर लोग जाते हैं, वहाँ खुद मौत ताक रही होती है। टूटी हुई दीवारें, सुविधाओं का अभाव और डॉक्टरों की कमी – ये सब मिलकर अस्पताल को एक कमरे से ज़्यादा कुछ नहीं रहने देते। इलाज के अभाव में दम तोड़ते लोग और असहाय परिजन, ये दृश्य किसी भी संवेदनशील हृदय को झकझोर देते हैं। क्या इन गाँव के बाशिंदों को स्वास्थ्य का अधिकार नहीं? और हाँ, गाँवों को शहरों से जोड़ने वाली वो टूटी-फूटी सड़कें। ये सिर्फ सड़कें नहीं, ये विकास की लकीरें हैं जो टूट गई हैं। न सिर्फ आवागमन में परेशानी होती है, बल्कि बीमारों को अस्पताल तक ले जाने में भी कितनी मशक्कत करनी पड़ती है। उत्पादित फसलें बाज़ार तक नहीं पहुँच पातीं और गाँव की अर्थव्यवस्था ठप पड़ जाती है। ये सड़कें सिर्फ पत्थरों का ढेर नहीं हैं, ये गाँव की प्रगति के मार्ग में खड़ी बाधाएँ हैं।
आज इक्कीसवीं सदी में जब दुनिया चाँद पर जाने की तैयारी कर रही है, हमारे लाखों गाँवों में नल सूखे पड़े हैं। पानी की एक-एक बूँद के लिए मीलों चलना पड़ता है। सिर पर घड़े उठाए महिलाओं को देखकर लगता है कि हम किस सदी में जी रहे हैं। जीवनदायिनी जल का अभाव – ये कितनी बड़ी विडंबना है! और जब सूरज ढलता है, तो पूरा गाँव अंधेरे में डूब जाता है। बिजली के खंभे तो हैं, लेकिन उन पर तार नहीं हैं, या अगर हैं तो बिजली नहीं। बच्चों के लिए रात में पढ़ना मुश्किल हो जाता है, महिलाओं के लिए घर के काम करना दूभर हो जाता है और गाँव के जीवन में एक ठहराव सा आ जाता है। यह सिर्फ अंधेरा नहीं, यह अधिकारों का अंधेरा है, असुविधा का अंधेरा है और उपेक्षा का अंधेरा है।सरकार से विनम्र निवेदन है कि शहरों का श्रृंगार बाद में होता रहेगा, पहले इन गाँवों की बुनियादी। उनकी ज़रूरतों को पूरा कीजिए। जब गाँव खुशहाल होंगे, तभी देश सही मायने में विकसित होगा। क्योंकि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है, और जब तक ये आत्मा पीड़ित है, तब तक कोई भी विकास अधूरा है।

संपादक सिद्धार्थ न्यूज़
